सृजन
मिलती है सौगाते खिलते मन के फूल ,
जब माँ जनती
है नन्हे से प्रतिरूप .
कोमलता से भर दे मन के सब अवकाश ,
जब गूंजे किलकारी
उमड़े मन में अनुराग ,
लगता मीठा –मीठा पीड़ा का एहसास ,
जब खुलती दो
आंखें सृजक के संग साथ ,
छोटी –छोटी ऊँगली छोटे-छोटे हाँथ ,
छू जाये जब तन
को छेड़े मन के तार ,
ममता ले हिलोरे
निकले अमृत धार ,
जब शिशु कराता है माँ के स्तनपान ,
जीवन की
अभिलाषा हो जाये सब तृप्त,
जब अमृत धरा से
हो नव शिशु संतृप्त,
प्यारी-प्यारी
बाते प्यारे-प्यारे बोल ,
जब भी बोले घोले
मिश्री प्यारे बोल ,
ये है माँ की
गरिमा जग पे है उपकार ,
कष्ट उठा के देती जीवन भर का प्यार ,
कैसे पा सकता है
पुरुष प्रकृति से पार ,
सृजक ने दे रखा
सृजन का उपहार,
लौकिकता से
प्रेरित जीवन का अभिमान ,
क्षण भंगुरता को
देते जिजीविषा से हार ,
सृजन की ही पीड़ा
देती नव उत्साह ,
सृजक भर
लेता है मुठ्ठी में आकाश,
Comments
आपकी रचना से प्रेरित होकर
शिशुताई से ताई माई, बुआ मौसियाँ है हर्षित जब ।
माँ का पारावार नहीं है, कितनी हर्षित होती है कब ।
शिशु में उसके प्राण बस रहे, शिशु के वश में माँ का जीवन ।
शिशु जागे जागे है माता, शिशु सोवे फिर भी जगता मन ।
दिन भर भागदौड करती है, रक्त जलाए दूध पिलाए ।
पर न कोई गिला शिकायत, गीला तन घूमें घर आँगन ।।
त्याग तपस्या की प्रति-मूरत, रविकर करे प्रणाम मातु को-
माँ की महिमा अगम अगोचर, शिशु ही उसका तीरथ उपवन ।